तुम्हें ज्ञात है


Notice: Trying to access array offset on value of type bool in /home/u883453746/domains/hindagi.com/public_html/wp-content/plugins/elementor-pro/modules/dynamic-tags/tags/post-featured-image.php on line 36

तुम्हारी सुगंधि इतनी रमणीय है कि,
कोई भी पुष्प,
तुम्हारे सम्मुख आने से कतराता है;

तुम्हारा सौंदर्य इतना चित्ताकर्षक है,
कि देवबालाएँ भी नित्य झेंप खाती हैं;
तुम्हारे स्पर्श से कोपलें फूटती हैं,
पल्लवन प्रारम्भ होता है;

तुम्हारे वाचन की माधुर्यता में हो विलीन,
लहरें सम्मार्गी हो जाती हैं,
व्योम मोहक वृष्टियाँ प्रेषित करता है,
और थिरक उठती हैं पत्तियाँ; 

मैं जानता हूँ, 
तुम्हें भी ये सब ज्ञात है,
फिर भी जब कभी तुम यह पूछती हो,
क्यों है तुम्हें.. इतना स्नेह मुझसे?
तो मैं बिना कुछ कहे, 
अपलक, तुम्हें देखते रह जाता हूँ,
और तुम्हारा हृदय 
आत्मविभोर 
हो उठता है।

‘Tumhe Gyat Hai’ A Hindi Poem by Vijay Bagchi

Related

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: