चंपा के पेड़ से बात करना धैर्य का अभ्यास है
ख़ुद आगे बढ़ कर यह पेड़ बात नहीं करता
पत्तियां खर खर नहीं करेंगी कि शरद द्वार खड़ा है
सीत हवाओं के निहोरे से अलबत्ता चुपचाप झरता है
इतना दूर नहीं उगा
कि संकल्प करके इसे कोई ढूँढने निकले
इसके नाम से नहीं होता एक प्रांत अलग दूसरे प्रांत से
मिल जाता है धूर भरी सड़कों के किनारे शहर दरबदर
कतार में एकांत में
स्वांत सुखाय
गलियों बागों बगीचों में
रास्तों को रौशन करता
प्रतीक्षा मुक्त
न मधु न भ्रमर
चंपा के पेड़ पर कुछ भी उलझा हुआ नहीं है
पत्तियां मुश्किल से एक दूसरे को स्पर्श करतीं
फूल खिले हुए टहनियों पर विरक्त
ऐसी निस्पृहता!
जीवन है तो ऐसी निस्पृहता क्यूँ मेरे पेड़!
कौन है तुम्हारे प्रेम का अधिकारी
सर्वत्र तो दिखते हो
मन में किसके बसते हो?
उत्तर मिला धीरे से
निस्पृहता मेरा ढब है
प्रतीक्षा में रत हूँ उस पथिक की
जो जानता है
सत्य पृथ्वी परायण होते हुए भी उभयचर है
निर्द्वंद है पर करुणा से रिक्त नहीं
मैं उस पथिक के प्रण पर नहीं उसकी उहापोह पर जान देता हूँ
जो सत्य की प्रतिष्ठा ऐसे करता है
जैसे आटे को सिद्ध करती स्त्री
परात में
कभी पानी और डालती
कभी आटा और मिलाती है।
‘Champa Ka Ped‘ A poem by Monika Kumar