दात्री


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अब मैं दुख की माॅंग करता हूॅं
कर रहा हूॅं।

एक हाथ उठता है दूसरा भी उठा देता हूॅं
बिना किसी संकोच के
सिर्फ हाथ ही नहीं आँखें भी उठाता हूॅं
बिछा देता हूॅं
इसी याचना में पूरी देह झोंक देता हूॅं।

जब हाथ आँखें और समूची देह भी मेरी भूख नहीं मिटा पाती
आत्मा भी बैठा देता हूॅं तुम्हारे सामने

और
तुम कितनी कठोर हो
कि मुझे दुख भी पूरी तरह नहीं देती।

तुम मुझे भरती तो हो
लेकिन इतने संकोच से क्यों?
देती तो हो लेकिन तरसा तरसा कर क्यों?

सुख की चिरंतन प्रतीक्षा दुख में बदल गई है
कितना बुरा है सुख का ,आने से पहले ही दुख में बदल जाना

जाने वाले को तो मैं नहीं रोक सका
जो चला गया सो चला गया मान कर बैठा हूॅं
और नहीं भी मानू, तो क्या
किसीका क्या बिगाड़ सकता हूॅं न मानकर

(मुझे अगर पता होता कि तुम जा रही हो
सच, कोशिश जरूर करता

मुझे मेरे विश्वास ने डुबोया है)

जो आ रही है
उस उम्मीद के प्रति फिर से खुद को बहा देना चाहता हूॅं
कितना चाहता हूॅं भाग निकलूं
लेकिन तुम्हे चाहते रहने का चद्दर ओढ़े छिप रहा हूॅं
तुम्हे चाहते रहने के दरवाज़े की ओट में.. मैं हूॅं।

देह पर इंतजार उग रहा है
और आॅंखों में ऊब
दोनों साथ! साथ साथ
एक यथार्थ है
और दूसरा.. मृत्यु तक चलने वाला अंतहीन नाटक।

हाथ तुम्हे छूना चाहते हैं
एक बार भी न छू पाने की पीड़ा कितनी बड़ी होती है(!)
तिल तिल जलाती है
जला रही है

एक ही क्षण में दो विचार फूटते हैं मुझसे
एक प्रेम का
और एक घृणा का

तुमसे घृणा करना
शिकायतों से भरा हुआ सतत अभिनय है,

मैं तुमसे प्रेम के अलावा कुछ और नहीं कर सकता
कुछ भी नहीं!

और तुम कितनी कठोर हो
(हो गई हो!)
कि मुझे दुख भी पूरी तरह नहीं देती

दात्री
प्रेम पूरा दिया है तुमने
दुख भी पूरा दो
पूरी तरह दो।

‘Daatri’ A Hindi poem by Rishi

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