ठंडे कमरों में बैठकर
पसीने पर लिखना कविता
ठीक वैसा ही है
जैसे राजधानी में उगाना फ़सल
कोरे काग़ज़ों पर।
फ़सल हो या कविता
पसीने की पहचान है दोनों ही।
बिना पसीने की फ़सल
या कविता
बेमानी है
आदमी के विरूद्ध
आदमी का षडयंत्र–
अंधे गहरे समंदर सरीखा
जिसकी तलहटी में
असंख्य हाथ
नाख़ूनों को तेज़ कर रहे हैं
पोंछ रहे हैं उँगलियों पर लगे
ताज़ा रक्त के धब्बे।
धब्बे: जिनका स्वर नहीं पहुँचता
वातानुकूलित कमरों तक
और न ही पहुँच पाती है
कविता ही
जो सुना सके पसीने का महाकाव्य
जिसे हरिया लिखता है
चिलचिलाती दुपहर में
धरती के सीने पर
फ़सल की शक्ल में।
‘Fasal Aur Kavita’ A Hindi Poem by Omprakash Valmiki