मेरे कद को हिमालय की ऊंचाई,
सिंध की गहराई से न नापा जाए।
मेरे गर्व, मेरे स्वाभिमान को,
हवाओं के रुख से न तौला जाए।
चिड़ियों की चहचहाहट से,
मेरी खुशियां न आंकी जाए।
मुठ्ठी भर लोगों की सूरत देख,
मुझे समृद्ध न माना जाए।
लेकर धर्म की आड़,
कत्ल जो मेरी रुह का कर रहे हैं।
देकर इतिहास की दुहाई,
जो जिस्म के मेरे टुकड़े कर रहे हैं।
कोरे जय हिन्द के नारों से उन्हें,
तमगा न मेरे नाम का बांटा जाए।
आंखों में झिलमिलाते सपनों से,
मेरी कद का नाप ले आना।
हवाओं से लड़कर जिसने मंजिल पाई,
उसकी आंखों में झांक मेरे गर्व का अंदाजा लगाना।
मासूम मुस्कुराहट में मुझे हंसता पाओगे,
लहलहाते खेत देख तुम मुझे समृद्ध पाना।
हिन्दू मुस्लिम जब साथ बसेरा बसाएंगे,
तब न जिस्म के मेरे टुकड़े किए जाएंगे।
मेरी रुह तब खिलखिलाएगी,
जब औरत भी खुली हवा में सांस ले पाएगी,
शिक्षा पर हर किसी का अधिकार होगा,
समानता शोषण के विरुद्ध उपचार होगा।
मेरे नाम का तमगा वे लेकर जाए,
जो मेरा यश फलक पर लहराए।
जब तक ऐसा हो न जाता
तब तक न मैं स्वतंत्र हूँ, न गणतंत्र हूँ
न मैं धर्म निरपेक्ष हूँ।
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