आज सत्यजित रे का जन्मदिन होता है.
रे से मेरा या हमारा क्या ताल्लुक़? क्या केवल पाँच-सात फ़िल्में देखने के बाद हम किसी को एडमायर करने लग जाते हैं. या जनरल टर्म्स में किसी कविता, कहानी, संगीत, कला को ऊपर-ऊपर से देखने के बाद हम शुरुआती प्रभाव को शेयर करने की हड़बड़ी (दिखावे) में ऐसा करते हैं? मुझे लगता है कि किसी प्रभाव को कभी साझा कर देने में भी कोई हर्ज नहीं. चूँकि रे के जन्मदिन के बहाने ये बात कर रहा तो इसमें बाक़ी और सभी (जिनसे मैं प्रभावित रहता हूँ) की बात भी कर ली जाए.
हम सभी की अपनी अपनी पसंद है. मगर मैं अपनी पसंद साझा इसलिए करता हूँ कि ये एक तरह से उनका शुक्रिया कहना ही है. अक्सर जीते हुए हम कोई पहेली या अनुभव अपने प्रिय लेखक, गायक, कवि, कलाकार या व्यक्ति के अनुभव से ले कर अपने जीवन को समझते हैं. लगता है जैसे हर दिन एक नया कमरा खुल रहा और हम उसमें जाते जा रहे. अक्सर समझ के दायरों में, अनुभवों से जीवन बड़ा लगने लगता है. मेरे लिए किसी भी कला या जीवन अनुभव की अहमियत उसका असर कर जाना है. इमोशन की तह तक जाना या कुछ कमाल का घट जाना अहम है. कलाओं में वो बात होती है. इसलिए विचारधारा की जगह विचार मुझे पसंद है. दूसरा यह भी कि सामन्य अनुभव हम सबके पास हैं और विशिष्ट, गहन अनुभव भी. अपनी बात रखना केवल एक दिशा बताने जैसा भी है कि भई इधर से गुज़रे या नहीं? बाक़ी हम में अगर रे का सिनेमा अनुभव करने की सामर्थ्य है तो इसका मतलब यह कि हम सब अनुभव के एक ही तल पर हैं. ऐसा ही किसी कवि के लिए भी या साहित्य या कला के लिए भी. हाँ, वो बेहतर इसलिए हैं कि समय से बहुत पहले उन्होंने ये सत्य खोजा या वहाँ तक की यात्रा की.
इस थोड़ी सी भूमिका का मक़सद केवल इतना कि अपने आसपास ये बातें, अनुभव बाँटे जाएँ.
यह तस्वीरें पिछली कोलकाता यात्रा के दौरान रे के घर विजिट करने की हैं. एक तस्वीर में उनकी वही चेयर जिसके कई और चित्र कई अन्य लोगों के साथ मिल जाएँगे. एक तस्वीर में उनका पियानो और लाइब्रेरी है. जो टैगोर और परमहंस की तस्वीरें हैं वो बिलकुल उनके घर के बरामदे में दाख़िल होते हुए, सबसे पहले दिख जाएँगी. टैगोर और परमहंस के बिना बंगाल अधूरा है. रे की फ़िल्मों को जानने, समझने का रास्ता भी यहीं से होकर गुज़रता है.
दो साल पहले 17 नवम्बर 2018 का दिन जब सत्यजित रे के घर को देखने का मौक़ा मिला था. सुबह जब दिन शुरू हुआ तो मुझे नहीं पता था कि क्या होने वाला है! जिस काम के लिए मैं कोलकाता आया था वहाँ से ब्रेक लेकर जब कोलकाता की ये डायरी लिख रहा था तो मक़सद केवल इतना था कि जिये हुए को बचाया जाए. मुझे क्या पता था ये डायरी मेरे लिए सहेज लेने वाली याद बनेगी. बीता दिन अगर टैगोर की स्मृतियों को जीने का था तो आज का दिन महान फ़िल्मकार सत्यजित रे के घर पर बीता.
सुबह जब फ़िल्मकार शिवेंद्र सिंह डूंगरपुर ने वर्कशॉप और लंच के बाद दोपहर के कार्यक्रम में रे के घर जाने के बारे में बताया तब से ही बेचैनी थी. फ़िल्म हेरिटेज फ़ाउंडेशन कार्यशाला के लिए दुनिया भर से आए चुनिंदा विशेषज्ञों के साथ दोपहर के लगभग 3 बजे हम बिशप लेफरॉय रोड स्थित रे के घर पहुँचे तो कुछ समय के लिए आँखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था. वो सीढ़ियाँ, वो कॉरिडोर, बैठक कक्ष, रे के हाथ से बने स्केच, किताबें, तस्वीरें, इनामों की ट्रोफ़ियाँ, रे का पियानो और वो कुर्सी जिस पर बैठ कर उनकी कई तस्वीरें हैं … सब कुछ अद्भुत लग रहा था. रे के घर में उनकी तस्वीरों के बीच किशोर कुमार पर उनके पुत्र संदीप रे की बनाई डॉक्यूमेंट्री का पोस्टर देखकर अपने शहर खंडवा का कनेक्शन भी फ़ील हुआ. कितनी तो बातें हुईं! ‘पाथेर पाँचाली’के समय से ही उनके सहायक रहे पुन्नू सेन ने रे की कई कहानियाँ सुनाई. जब से फ़िल्म इंस्टीट्यूट में रे को जाना था तब से एक ख़्वाइश थी कि कभी कलकत्ता जा कर रे का घर ज़रूर देखना है. मैं उन खिड़कियों और जगहों को बस ताक रहा था कि यहीं कितने विचारों को दृश्य बन जाने का मौक़ा मिला होगा! इन्हीं जगहों पर उनकी आवाज़ गूँजती होगी! यहीं उनके भीतर की बेचैनी टूटती और साँसें लेती होगी! उनके घर में प्रवेश करते ही परमहंस और टैगोर के चित्र हैं. भीतर किताबों का विशाल भंडार. और पूरे घर में घूमते हुए लग रहा था कि सिनेमा कला के पास इसी जगह से इतिहास का रास्ता निकला था. मैं उस इतिहास के कितने क़रीब था आज. उसे सुन सकता था, महसूस कर सकता था. सत्यजित रे से इस तरह भी मिलना हो सकेगा,यह तो कभी सोचा ही नहीं था.
वापस लौटा तो ऐसा लग रहा था कि कोई सपना था. मगर तस्वीरें बार बार याद दिला रही हैं और आगे भी दिलाती रहेंगी.