स्त्रियों के हिस्से कभी कोई रविवार नहीं था


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स्त्रियों के हिस्से कभी कोई रविवार नहीं था
रविवार की सुबह
इत्मीनान से बस एक कप चाय नसीब थी
तुरंत बाद ही
बालों को लपेट एक ऊंचा जुड़ा बांधती
और सामने होता कपड़ों का ढेर
जूठे बर्तन /बिखरा सामान
सामानों पर जमी धूल
कोने- कोने की सफाई
फिर फ़रमाइशी खाना

आधा दिन बीत जाता
दोपहर कपड़ों में इस्तरी
कुछ घूमने आए मेहमानों की तैयारी
ना चाहते हुए भी हंसी में शामिल

शाम ढले निढाल हो
फिर एक कप चाय के साथ बैठती
कप से ही बतिया लेती
फूलों में पानी डालते हुए गमलों से गलबहियाँ कर लेती

हालांकि
जुड़ा अभी नहीं खुला था
खोंस दिया था उसमें एक कांटेदार पिन
मन का दूसरा हिस्सा अब भी उड़ता है
दूब-घास , अलगनी पर टंग जाता है
दीया – बाती के समय भी नहीं लौटना चाहता
दिशाहीन हो भटकता है
दार्शनिक-सा बहुतेरे सोचता है

दक्ष है हर कला में
परंतु
अपने शौक को थपथपाता है
तजुर्बा है जीवन का
तकाजा बहुत महँगा है
यह ढिबरी में थी तो खुशी थी बहुत
चाँदनी रात अब डराता है

पंख अब भी थका नहीं
ठोकर खाकर भी रुका नहीं
माँ को याद कर ठुनकती हूँ अब भी
पिता की बाहों में झूलती हूँ
थपथपाता है हृदय का कोना कोई
ठिठकता है आहट से अब भी हृदय
झालरें रंगीन बुनती हूँ अब भी कई
पनीली है आँखों की झिल्ली अभी

सुबह के 4:00 बजे हैं हाथों में काली चाय की प्याली है और हाथ में ममता कालिया की दुक्खम सुक्खम

परंतु हर स्त्री को लौट आना होता है
चिड़ियों के चहचहाने से पहले अपने ख्वाबगाह से
अब लौट रही हूँ मैं सोमवारी कांति लिए
अब कोई ख्वाब नहीं सामने हकीकत है
काम पर जाने की कवायद है

सच तो है
स्त्री हूँ
और स्त्रियों के हिस्से कभी कोई रविवार नहीं था।

‘Striyon Ke Hisse Kabhi Koi Ravivaar Nahi Tha’ A Hindi Poem by Jyoti Reeta

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