बारिश की कितनी तहें होंगी
पानी की कितनी तहें होंगी
जो नाव तैरती चली जा रही है
उस नाव की कितनी तहें होंगी
तुम्हारे चलने से जो छाप पड़ी है
ओस की बूँदों से सराबोर घास पर
उस छाप की कितनी तहें होंगी
वह साँचा कितनी तहों से बना होगा
जिस साँचे से रंगरेज़ साड़ी छापता है
कारपेंटर के पेड़ की कितनी तहें होंगी
पिता के सोंटे की कितनी तहें होंगी
जिस अँगोछे से पोंछता हूँ भीगी देह
उस अँगोछे की कितनी तहें होंगी
चाँद की कितनी तहें होंगी
तारे की कितनी तहें होंगी
पृथ्वी-आकाश की कितनी तहें होंगी
उस कुण्ड की कितनी तहें होंगी
फूलों से भरे जिस कुण्ड में तुम नहाती हो
उस पुराने मकान की कितनी तहें होंगी
जहाँ छिपकर मैं तुमको देखा करता हूँ
तहों की इन असँख्य कथाओं के बीच
मेरा जो प्रेम है अब भी तहदरज़ है तहयुक्त है
तुम्हारे उस नए कपड़े की तरह है
जिसकी तह तक नहीं खुली है।
‘Tahdaraz’ A Hindi Poem by Shahanshah Alam