बचपन में सेट मैक्स, ज़ी सिनेमा और स्टार टीवी पर दिखाई गई फिल्मों के कारण फ़ारुख़ शेख़ दिमाग में कुछ इस तरह बस गए थे कि अब स्मृति से छूटते ही नहीं… सिनेमा का एक सादा चेहरा, शुक्रिया तुम्हें ये दिखाने के लिए मुझे कि सिनेमा इतना सादा भी हो सकता है…. फ़ेसबुक मेमोरी में यह कविता दिख रही जो उनके गुज़रने पर लिखी थी!
ख़ामोशी के जंगल जहाँ अपनी पत्तियों की आवाज़ें सुनाते हैं
तनहाई का मंज़र जहाँ अपने पैरों के निशान छोड़ जाता है
जहां दूर से एक हाथ बस हिलता हुआ दिखाई देता है
पुकारने अपनी ही आवाज़
झक सफ़ेद कुर्ते में जहाँ एक मध्ययुगीन दशक मुंडेर पर बैठा
उड़ाता है सिगरेट के धुएं में बेबसी के छल्ले
जहाँ नुक्कड़ की पान की दुकान, ठेले की चाय और कमरे की बेरुखी
तकाज़ा करती है सदी की सबसे महकी दोपहर का
जहाँ शाम का ढलता सूरज और रात की उदासी
मचलते ख्वाब की नमी छत की कड़ियों में अटका जाती है
वहीँ से शुरू होता है सफ़र तुम्हारा.
विदा
उस ठहकती हंसी से
जिसमें अब भी बंद है संसार का सबसे ख़ूबसूरत समय
और
जो किसी भी भाषा की भाप से पकड़ में नहीं आएगा
वो समय जो दर्ज है आँखों की खिड़कियों में
और जो चाहे तब भी उड़ नहीं पायेगा भाप बन कर
बस जमा रहेगा
किरचन बन कर रुई की लुनाई-सा
कि जब तुम दिखोगे परदे पर कहीं टीवी के
दूर तालाब के किनारे
उतर आएगा ख़ामोशी का गर्म सोता
और बहता रहेगा रगों में आहिस्ता-आहिस्ता