अगले ढाई साल में कुछ तय नहीं होने जा रहा
भविष्य आ चुका है
जब आगत ने कंधे पर हाथ रखा तुम कहीं और देख रहे थे
जब उसका टीका तुम्हारे माथे पर लगा तुम हँस रहे थे
वह कौन था जो खोया खोया सा टी वी देखता था
पराजित और बदहवास सा बैंक की तरफ़ भागता था
परसों ही तो वह कह रहा था सिस्टम रिबूट हो रहा है
थोड़ा इन्तिज़ार करो
नक्षत्रों का जीवन काल की अवधारणा अन्तरिक्ष की दूरियाँ
घर से ए टी एम का फ़ासला
तुम्हारे बचपन से आती हुई कोई रौशनी
सब गड्डमड्ड हैं एक अजीब सी सीटी बजती है कानों में
देखने के तरीक़े जानने की बातें सीखने की इच्छा
सब पर कोई एक्सपायरी डेट छाप दी गई लगती है
उलट पुलट कर देखते हो इबारत साफ़ पढ़ी भी नहीं जाती
उस खोयी हुई औरत को भी आज ही दिखना था
इंतिज़ार करती हुई भीड़ के बीच
कैशियर पुकारता है सुमनलता बड़ी चपलता से वह उठती है बोलती है हाँ जी
टोकन देकर पैसे लेकर लौटते हुए वह अचानक तुम्हारे सामने रुकती है
‘हलो, आप मुझे पहचान नहीं रहे हैं, मैं आपके पड़ोस में रहती हूँ!’
‘जी’ कहके तुम अजीब ढंग से मुस्कुराते हो, तुम्हें अब पता नहीं वह कौन है
और तुम कहाँ खड़े हो — अतीत में, अनिश्चित भविष्य में, या अटपटे वर्तमान में
भविष्य आ चुका है
अभी अभी तक बहुत कुछ तुम्हारे अनुकूल था
कमल तुम्हारे लिए एक फूल था केसर महज़ एक रंग
चीख़ता हुआ आदमी एक अशालीन उपस्थिति
एक फीकी हँसी रह गई है जो और फीकी होती जाती है
कड़वापन, व्यंग्य, कटाक्ष, निंदा सब हुक्मरानों के अहाते में हैं
तुम्हारे पास है क्या, न नुक्कड़ न नाटक
प्रहसन पर भी अब उन्हीं का एकाधिकार है।
रचनाकाल : साल 2016 माह दिसम्बर
‘Agle Dhai Saal’ Hindi Kavita By Asad Zaidi