देह पर आकृतियाँ


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मैं चाहती हूँ
तुम मेरी देह पर
आकृतियाँ बनाओ
असंख्य आकृतियाँ
और गिनना भूल जाओ

8 बाई 10 के कमरे में
जब लेटे हों हम
बिस्तर पे
सिर आमने-सामने किए हुए

गालों पर उकेरो
गोल चाँद
और ठुड्डी पर
उल्टा अर्धवृत्त

जब आँखे बंद हों
पलकों पर बनाओ
पान के पत्ते
होंठों पर मछली

नाक पर बने हों
मिस्र के पिरामिड!

गर्दन पर
बारिश की इठलाती नन्हीं बूँदें

स्तनों पर
सूरजमुखी के फूल
खिला दो
और नाभि पर लहक उठे हों
सेमल के कुछ फूल

पौधों से लिपटी हों लताएँ कई
पहुँच हों इनकी
ठीक तुम्हारी बाँहों तक

ये बाँहें जो मेरा पैरहन हैं
हों उभरे उन पर तितलियों के नीले-पीले
रेशमी पंख!

तुम श्रांत मत पड़ना
आकृतियाँ बनाना
बनाते जाना,
और गिनना भूल जाना!

फिर तब थमना जब
अगली सुबह हम
गीत सुनें गौरैयों का।

‘Deh Par Aakritiyan’ A Hindi poem by Ankita Shambhawi

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