रजुआ। एक घोड़े का नाम था यह। वैसे तो घोड़े को घास से दोस्ती नहीं करनी चाहिए पर इस वाले ने इसने कि घास को नहीं खायेगा। धरती की हरियाली रहने देगा। लहलहाने देगा। मस्त पवन के साथ हिलने-डुलने देगा। न पैरों से उसे कुचलेगा और न ही दाँतों से काटेगा।
वह दूर से ही घास को देखता फिर मुँह दूसरी तरफ कर लेता। उसे भूख सता रही थी पर घास को नुकसान नहीं पहुँचाना चाहता था। कई बार तो पास जाकर भी लौट आता। आने-जाने की क्रिया से थक चुका था। वह चुप-चाप एक जगह खड़ा हो गया। थोड़ी देर में उसकी आँख लग गई।
नींद आते ही सपने में अपने पूर्वज की आत्मा उसे दिखी। रजुआ ने सिर और पूँछ हिला कर प्रणाम किया। पुण्यात्मा खुश हो गई। उसने आशीर्वाद दिया और रजुआ को कुछ यूँ समझाया, “देख नादां ! घास नीचे रहती है तुम उससे ऊपर। ऊपर वाले जमीनी लोगों से दोस्ती करने लगेगें तो भूखे रह जायेंगें। अस्तित्व ही मिट जायेगा उनका। कम से कम इंसानी माहौल से तो सीख लेते। देखो पुत्र! धरती और आसमान मिलते हुए जरूर दिखतें हैं पर कहीं मिलतें हैं क्या? सब हमारी नज़रों का धोखा है। दूर के ढोल बड़े सुहावने और मिलवाने से लगतें हैं। हम उसकी आवाज पर झूमते रहतें हैं। जब पास आतें हैं तो शोर बर्दाश्त नहीं हो पाता है। उलझन सी होने लगती है कि कब ये जाय यहाँ से। घास से दोस्ती एक तरह से दूर का ढोल ही है। पता है, नीचे वाले कुचलने और किसी भी तरह खा जाने के लिए ही तो बने हैं। उन्हें खाओगे तो जिन्दा रह पाओगे। इनकी भलाई की सोचोगे तो तुम्हारा जीवन संकट में पड़ जायेगा। अच्छा रजुआ! ये बताओ, क्या किसी घास ने खाते समय चूं-चपड़ की है?… विरोध किया है?… नहीं न?… तो फिर? तुम भले किसी बात पर हिनहिना लो या दुलत्ती मार लो पर घास को देखा है बोलते हुए? चीखते-चिल्लाते हुए? देखो कुलदीपक! जमीन पर रहने का मतलब ही होता है चुप रहना, सहना और खुद को पूरी तरह समर्पित कर देना। उनके इसी व्यवहार से ऊपर वालों का ऊपरत्व जिन्दा रहता है। अगर ऐसा नहीं होता तो एक बार कट जाने के बाद घास ऊपर मुँह करके फिर से क्यों उग आतीं? हम सब तो सदियों से घास खाते आयें हैं। आगे भी खातें रहेगें। जरा अपनी सोचो! उसे नहीं खाओगे तो तुम्हारे घोड़ेपने का क्या होगा? कमजोर हो जाओगे। हीमोग्लोबीन कम हो जायेगा तुम्हारा। ‘अश्वशक्ति’ नाम की जो चीज़ है, दुनिया से मिट जाएगी। तुम घास पर शासन कर सकते हो। खा सकते हो। निगल सकते हो पर मित्रता? न-न, तुम्हारी तो ऊंचाईगिरी का राज ही यही है। चलो उठो! उस जमीन से सटी बेचारी घास को कुचल दो। दांत से काटो और खाओ। हाँ, एक राज की बात बताऊँ, घास धरा पर उगती है। धरा और घास दोनों औरत जात। बर्दाश्त करने में माहिर हैं दोनों। कोई कुछ बोलेगा ही नहीं चाहे कितना भी इन्हें कूट-पीट लो। मेरे लाल! अब इनकी चिंता-फिकिर छोड़ दो…समझे? दोस्ती बराबर या ऊपर वालों से करो। नीचे वालों को चबाकर अपना पेट भरो। घोड़ा कहीं का…अपना ख्याल रक्ख। ठीक?”
रजुआ की आँखें खुल गयीं। दिमाग काम करने लगा। घसियारी मैदान की तरफ हिनहिनाते हुए भागा। ऊँचा होने की भावना उसमें बुरी तरह घुस चुकी थी अतः रास्ते में जो रोड़ा बना उसे दुलत्ती मार कर गिराता गया। उसने पेट, गला और मुँह भर के घास खाई। उधर घास को कोई दुःख नहीं था। उसकी तो यही सोच थी कि घोड़ा घास का, घास के द्वारा और घास के लिए बना जानवर है।
- रुझान प्रकाशन द्वारा प्रकाशित “पंचरतंत्र की कथाएँ” से