हमसफ़र


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यूँ ही अचानक
साल भर बाद
मेरे पते पर
तुम्हारा खत पहुँचना
जैसे सोती रात में
नीरव खड़े तालाब में
हवा को चीरता गिर आया हो
कोई उल्का पिंड।

वो पता
जो कभी सही था
जो जानता था तुम्हारी आहटों को
पहचानता था तुम्हारी पाज़ेब को
जिसने जिया है तुम्हारी खामोशी को
जो अब चश्मा ढूँढता है
तुम्हारी लिखावट
पहचानने को।

मेरे लिए
आसान कभी नहीं रहा
पढ़ना!
तुम्हारा लिखा हुआ।

तुम नहीं जानती
कितनी ऊर्जा भरनी होती है
फेंफड़ों में
ताकि साँसे चलती रहे
अपनी नियत गति से।

ताकि बचाया जा सके खुद को
उस भय से
जो साँसों के चढ़ने
और उतरने के मध्य
आते ठहराव में मुझे रोक लेना चाहता है।

ताकि बुझाया जा सके
उस सुलगते उल्का पिंड को
और शांत किया जा सके
उस हलचल को
जिसने छीन लिया है
रात से उसका एकांत।
•••
यहाँ से लौट पाना
अब ना तो संभव है
ना ही सही।
चलते रहना
नियम है प्रकृति का
और
व्यर्थ है रुककर
इंतज़ार करना भी
क्योंकि
अलग रास्तों पर चलने वाले कभी हमसफ़र नहीं हो सकते।

‘Hamsafar’ A Hindi Poem By Kumar Divyanshu Shekhar

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