जीवन की गोधूलि


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आधे जीवनोपरान्त भी
सब कुछ नहीं बदला
बस चंचलता पर स्थिरता व्याप गई
अब तुमसे हँसी ठिठोली नहीं कर पाता
लेकिन अभी भी
तुम्हारे बालों की उलझने सुलझाने में
मेरी उँगलियों के पोर उतने ही दक्ष हैं
जितने
प्रेम की नवजात अवस्था में थे

हे! मनोरमे
मेरी आँखों में असमय पड़ गए जो जाले
उसने मुझे तुम्हारी आँखों के नीचे विस्तृत
गहरे काले मेघ देखने न दिए
लेकिन तुम्हारी आवाज के कम्पन से
मैं भाँप लेता हूँ
तुम्हारी पीड़ाओं के चढ़ते- गिरते ज्वार

बड़भागी हूँ मैं
जो तुम्हारे प्रभामयी नैत्रों को अपने अधरों से छूकर
सूर्यमुखी सा खिल उठता हूँ हर बार
लेकिन अभागा भी
कि झर जाता है उम्र का मुरझाया पात
हर प्रात

प्रिय !
विगत बसंत के स्वपनों को तज
इस पतझड़ को स्वीकार करोगी ?
या फिर मुझ मरुथल में भी
मरीचिका का भास करोगी ?

लेकिन
मैं तो निर्जन वन सा
बसने को अब भी आतुर हूँ
हाँ,
मैं वही हूँ… मैं वही हूँ…. मैं वही हूँ…

‘Jeevan Ki Godhuli’ Hindi Kavita by Deepti Pandey

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