ज्यों-ज्यों तबियत बिगड़ने लगी


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कार्यक्रम का समय शाम चार बजे का लिखा था कार्ड पर। सम्मान मेरा नहीं होना था, किसी वरिष्ठ रचनाकार का था। वो इतने वरिष्ठ थे कि उनके दस्ते में दो दवाईयों के बस्ते, एक बैसाखी और दो पारिवारिक सहयोगी साथ रहते थे। सम्मान में मिलने वाली राशि का उपयोग परिवारजनों को ही करना था अतः वे कभी अपने कर्तव्य से विचलित नहीं हुए। ये वही लोग थे जिन्होंने न जाने कितनी बार उनके लेखन क्रिया पर तंज-तीर फेकने के अद्भुत कौशल दिखाये थे।

खैर, जैसे ही मैं निर्धारित सभागार में पहुँची, पता चला कि कार्यक्रम में देर है। अभी साढ़े चार बजे थे। वक्त ही कहाँ हुआ था? बस, गिने-चुने लोग चार बजे आये थे। इन बेचारों को समय/असमय की कीमत पता नहीं थी।

थोड़ा समय और बीतने पर भीड़ बढ़ने लगी। खुशियाँ चारों तरफ ऐसे भर गईं जैसे गुब्बारे में हवा। उधारी की प्रसिद्धी के लिये सुप्रसिद्ध लोगों के साथ सेल्फियाँ और ग्रुप फोटो खिंचवाने का अचूक मौका था। सभागार खुद भी ऐसे साहित्य प्रेमियों की मौजूदगी से गदगद था क्योंकि ध्वनि से प्रतिध्वनि की गूँज ज्यादा थी। मोबाइल के कैमरे बोल तो नहीं सकते थे पर उनकी धन्यवाद तरंगों का अनुभव सबको हो रहा था। परिणामस्वरुप फोटो खींचने और खिंचवाने वाले जारी रहे।

अब हाल के दरवाजे पर वक्त के पाबन्दों के भी दर्शन होने लगे। सब एक-दूसरे को नमस्ते कहने और पाँव छूने में लीन हो गये। पाँव छूने वालों के चेहरे पर पवित्र महात्वाकांक्षा और छुआनों वालों में अद्भुत गुरुत्वाकर्षण शक्ति की तरंगें दिख रहीं थीं। जो किसी को भी नमस्ते और चरणस्पर्श नहीं कर पा रहे थे वो संशय में थे कि वो खुद ‘सीनियर’ हैं या सामने वाला। फायदा यह हुआ कि कुछ लोग आत्मसम्मान खोयक श्रम/परिश्रम से बचे रहे।

आखिर पाँच बजे तक सम्मान प्राप्तक और वक्तागण पहुँच ही गये। उन्होंने अपने और आयोजक के समय का भरपूर ख्याल रखा। कार्यक्रम वक्त के अनुसार होने की बजाय वक्ताओं के अनुसार शुरु हुआ। उनकी मुस्कुराहटें देखकर सारे दीप बिना किसी जलन-बुझन वाले नखड़े के तुरन्त जल पड़े। जैसे ही जले, सामने से कैमरों से प्रकाशपुन्ज भी दिखने लगे। मंचीयजनों के चेहरे पर कल के समाचार-पत्रों में खुद को देखने की नेताई रौनक साफ़ दिख रही थी।

आखिर वह समय भी आ गया जिसका बेसब्री से सबको इन्तजार था। जितने समय का ‘मार्जिन’ मिल पाया, सम्मान देवक और लेवक अवशेष तैयारी पूरी करने में जुट गये। सदरी का हर एक बटन खोलकर पुनः बंद किया गया। बालों की ‘स्टाइल’ उंगलियो से ‘सेट’ किये गये। सादे माथे पर चिन्तक वाली रेखायें आनी शुरू हो गयीं थीं। आँखें चारों तरफ देखकर बन्द हो जातीं फिर खुल जातीं। इससे ज्ञानवान आँखों के प्रदर्शन में आठ चाँद लगते गये।

खैर, सम्मान देने हेतु लेखक को सश्रम उठाया गया। उनके हाथों से सम्मान-पत्र, स्मृति चिन्ह और चेक छुआकर सहयोगियों को दे दिये गये। सम्मानित चेहरे पर भाव नहीं दिखे। सहयोगी अति प्रसन्न थे। हाल करतल ध्वनि से गूँज उठा।

अब दौर शुरु हुआ बोलने-बुलवाने का। सभी ने सामने रखी ‘मिनरल वाटर’ की बोतल से एक-दो घूँट गले से उतारकर गला साफ़ किया। जिनको पहले बुलाया गया, वो पीछे फँसे कुर्ते और गले की खरास को सही करते हुए ‘डायस’ के पास आये। उनके लिए यह समय सम्मानित व्यक्ति के पिछले एहसान चुकाने के लिए बिलकुल ‘फिट’ था। माईक पकड़कर वे ख़ुशी से वक्ताये, “दुनियाँ को यूँ ही गोल नहीं कहा जाता। देखिये न, कुछ वर्षों पहले मुझे भी एक सम्मान मिला था तो आपने मेरे लिये बड़ा अच्छा और सकारात्मक बोला था… आज मुझे आपके बारे में बोलना है… सच, बड़ा अच्छा फील हो रहा है।” लोगों ने जितना समझा उस पर तालियाँ बजायी और जहाँ नहीं समझा वहाँ और जोरों से तालियाँ बजायीं। सम्मानित सज्जन आश्वस्त थे कि मेरे लिये ये बंदा बुरा नहीं बोलेगा, कोई विवादित बयान नहीं देगा। पिछले माह इस वक्ता के सम्मान के समय इन्होंने भी तो अपनी उखड़ती-पलटती जिह्वा पर जबरदस्त नियंत्रण रखा था। यह अलग बात थी कि बाद में इन्हें बहुत अफसोस हुआ। विवादों से सुसज्जित इतिहास के बावजूद महाशय समाचार–पत्रों की सुर्खियाँ नहीं बटोर पाये थे। खैर, आज मंच पर बोलने वाले ने तारीफ के खूब सारे पुल बाँधे वो भी मजबूत रस्सी के साथ। दोनों के चेहरे पर असीम संतुष्टि के भाव थे।

दूसरे वक्ता उठे। वे साहित्य के भविष्यदृष्टा से लगे। कहा, “श्रीमान जी को सम्मानित करके सम्मान खुद सम्मानित हुआ है… (श्रीमान जी सुनते रहे। इसी बीच सहयोगी ने दवा खिलायी और पानी का गिलास पकड़ाया) आपने अपने जीवनकाल में साहित्य की जिस श्रेष्ठता को छुआ है, उसे अभी तक न कोई छू पाया है और न कोई छू पायेगा (यह कहते हुये इस ज्योतिषी ने अपनी मुट्ठी डायस पर जोर से ठोंकी) आपने… आपने एक युग का निर्माण किया है।”

यह सुनकर सभी खुश थे पर बेरोजगार सहयोगी बहुत खुश थे। मन ही मन श्रीमान जी के नाम से वे एक एन.जी.ओ. खोलने का निर्णय कर चुके थे।

श्रीमान निर्विकार थे।

इसके बाद के वक्ता तो महाशय के पुराने सम्बन्धी निकले। उनके बयान रिश्तों से दबे हुये थे। बोले, “मुझे याद है जब मैं कक्षा छ: में पढ़ता था तो मेरे विद्यालय के कार्यक्रम में आप आये थे। मैं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम आया था। आपने अपने कर कमलों से इनाम देकर कहा था, “बेटा, खूब आगे बढ़ो।” आपके श्रीमुख से जब ‘बेटा’ शब्द उच्चरित हुआ तो मैं धन्य हो गया, तबसे मैं अपने पिता से ज्यादा आपका सम्मान करता हूँ।” अन्तिम पँक्तियों के समय वो अपना मुँह माइक के और पास ले आये। खूब तालियाँ बजीं। सामने बैठे इनके पिता ने धीमी गति से ताली बजायी। वो अपनी वसीयत बदलने का मन बना रहे थे।

अन्त में सम्मानित बुजुर्ग की बारी थी। जैसे ही डायस के पास जाने के लिये वो उठे, पैर लड़खड़ा पड़े। सहयोगियों ने सम्भाला और माइक उनके पास ही मँगवा लिया। खरखराती हुई आवाज में वो वचनाये, “मैं आप सभी का आभारी हूँ। आपने मुझे सम्मान के लायक समझा। आप सभी का स्नेह मुझे खींच लाया है। मेरी तबियत सही नहीं रहती है। न जाने कब बुलावा आ जाये। शुभाषीस।” जैसे ही ‘बुलावा’ शब्द सभी ने सुना, सहानुभूति को फेंककर सबके हाथ मोबाइल पर चले गये। सभी ने बारी-बारी से उनके साथ सेल्फियाँ लीं। उनकी दवा का भी समय हो गया था पर ज्यों-ज्यों तबियत बिगड़ने लगी सेल्फियाँ बढ़ती गयीं।

अगली सुबह उनके दिवंगत होने की भी खबर आ गयी। सूचना आग की तरह फैली। गिनती के लोग ही उनके पास पहुँच पाये। ज्यादातर लोग पिछले दिन की फोटो सोशल मीडिया में डालने में अतिव्यस्त थे। इनमें से कुछ ‘लाइक्स’ काउण्ट करने में तो कुछ लोग ‘सानिध्य गुरू का’, ‘सेवा करते रहो’, ‘गुरू ईश्वर से बड़ा होता है’ जैसे कमेण्ट्स का जबाब देनें में लीन थे। जो गिने- चुने आये भी तो वे शवयात्रा के साथ अपनी उपस्थिति का सबूत खींचकर सोशल मीडिया के लिये अगली पोस्ट की तैयारी में जुट गये।

इंद्रजीत कौर की अन्य रचनाएँ।

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