लड़कियां

लड़कियां होती है लकड़ी की तरह
एक सिरे से दूसरे सिरे तक
जलती रहती है ताउम्र
कभी अंदर से तो कभी बाहर से
कभी अपने घर से तो कभी ससुराल से
कभी पुरुषों से तो अभी अपने ही कुनबे से
लड़कियां बढ़ती है लकड़ी की तरह

वह होती है
अंदर से मजबूत पुरुषों की तुलना में
लेकिन उन्हें सहने पड़ते है सैकड़ो कारतूस
दागी जाती है सीने पर गोलियां
जख्मी कर दिया जाता है
फिर भी वह हर रोज
नए की उम्मीद में डूब जाती है
फिर से गढ़ती है सपने
बुनती है नये-नवेले ख़्वाब
सपने बिखरते जाते है बारहा
एक बार टूट जाती है लकड़ी की तरह
फिर नही जोड़ पाती अपने पँखो को
लड़कियां होती है लकड़ी की तरह
आजीवन चलती है लकड़ी की तरह
आजीवन जलती है लकड़ी की तरह।

जालाराम चौधरी की अन्य रचनाएँ।

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