नींद में डूबी बेख़बर
फूलों की ख़ुशबू
उठती है तिलमिला कर,
जब नथुने भरने लगते हैं
मशीनों की गंध से
और फटने लगते हैं कान
विस्फोटों से।
उठकर महसूस करती है जैसे
एक करारा तमाचा
किसी ने जड़ दिया हो
अलसाए चेहरे पर
और उभर आया है
उसके अस्तित्व पर
कोई गहरा गड्ढा।
फिर भी वह उठकर
चुनने लगती है
गंध अपनी जड़ों की
उड़ रहे हवाओं में
जिसके परख़च्चे बारूद से।
टाँग दी गई है
बारिश की लाश
किसी पेड़ पर।
ठीक जंगल के ऊपर
तश्तरी-सा आकाश
गिद्धों से पट रहा है
और नदियों की आँखों से
ख़ून आँसू बन बह रहा है।
कुदाल, गैंता और कुछ हाथ
कोने में चुपचाप सिसक रहे हैं।
दरवाज़े पर खड़े
चंद काग़ज़ों के इशारे पर
लगते हैं वे दफ़नाने
अपने ही ग़ुस्से को।
तब चुपके से
बारूद और मशीनों की
गंध के गले पर वार कर
ख़ुशबू उठती है
और घुस जाती है
जंगल में हर फूल के भीतर
और उग आता है सुबह
फिर कोई नया फूल
आग और उम्मीद बन
सारंडा के अंदर कहीं।
‘Saaranda Ke Phool’ A Hindi poem by Jacintta Kerketta