तुम बची रह गयी मुझमें
जैसे
लोटा भर पानी गटक जाने के पर भी
बची रहती है गर्मियों में प्यास
जैसे
हथेलियों से पानी पोछ लेने के बाद भी
बची रहती है हाथों में नमी
जैसे
लकड़ियों के जल कर राख बन जाने के बाद भी
बची रहती है ऊष्मा
जैसे
रगड़ कर धुल जाने पर भी
बचा रहता है कुछ रंग कपड़ो पर
जैसे
कप की पेंदी में
बची रहती है घूंट भर चाय
जैसे
मृत्यु के बाद भी
बची रहती है जान कुछ अंगों में
जैसे
डालियों से टूट कर बिखर जाने के बाद भी
बची रहती है सुंगन्ध फूलों में
जैसे बचा रहता है
इंतज़ार, झूलता हुआ सांकल की तरह
मन के दरवाजे पर
करता है चोट बार बार
तुम बची रही मेरे स्मृतियों में
ठीक वैसे ही
जैसे बचा रहता है
किसी बूढ़े के स्मृति में उसका बचपन
जिसे वो दुबारा जीना चाहता है
‘Tum Bachi Reh Gayi Mujhme’ A Hindi Poem by Gaurow Gupta