तुम बची रह गयी मुझमें


Notice: Trying to access array offset on value of type bool in /home/u883453746/domains/hindagi.com/public_html/wp-content/plugins/elementor-pro/modules/dynamic-tags/tags/post-featured-image.php on line 36

तुम बची रह गयी मुझमें
जैसे
लोटा भर पानी गटक जाने के पर भी
बची रहती है गर्मियों में प्यास
जैसे
हथेलियों से पानी पोछ लेने के बाद भी
बची रहती है हाथों में नमी

जैसे
लकड़ियों के जल कर राख बन जाने के बाद भी
बची रहती है ऊष्मा

जैसे
रगड़ कर धुल जाने पर भी
बचा रहता है कुछ रंग कपड़ो पर

जैसे
कप की पेंदी में
बची रहती है घूंट भर चाय
जैसे
मृत्यु के बाद भी
बची रहती है जान कुछ अंगों में

जैसे
डालियों से टूट कर बिखर जाने के बाद भी
बची रहती है सुंगन्ध फूलों में
जैसे बचा रहता है
इंतज़ार, झूलता हुआ सांकल की तरह
मन के दरवाजे पर
करता है चोट बार बार

तुम बची रही मेरे स्मृतियों में
ठीक वैसे ही
जैसे बचा रहता है
किसी बूढ़े के स्मृति में उसका बचपन
जिसे वो दुबारा जीना चाहता है

‘Tum Bachi Reh Gayi Mujhme’ A Hindi Poem by Gaurow Gupta

Related

अठहत्तर दिन

अठहत्तर दिन तुम्हारे दिल, दिमाग़ और जुबान से नहीं फूटते हिंसा के प्रतिरोध में स्वर क्रोध और शर्मिंदगी ने तुम्हारी हड्डियों को कहीं खोखला तो नहीं कर दिया? काफ़ी होते

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: