तरकारी काटते वक़्त
क्यों नहीं काट देती मैं
मन को कचोटती लकीरें
जैसे माँ सुखा देती है
अचार की बरनियों संग
चुप्पियों का आक्रोश
जीवन के उधेड़बुन
को सुलझाती हुई
एक हाथ में मर्यादा
एक हाथ में उलाहना
लिए ऊन के गोले में
उलझ गयी हूँ
उन्माद, क्रोध, पीड़ा
का ठीकरा ढोते हुए
अधखुली आँखों से
नाप लेती हूँ सारी ग्लानि,
जब पृथ्वी की कोख़ में
कोई खाई जन्म लेती है
तब प्रसव पीड़ा में
वो किसे पुकारती होगी?
या उसी कोख़ में जब कोई
पहाड़ पनपता है
तो किसके गले लगती होगी?
प्राचीन पुस्तकों
में क़ैद स्त्रियाँ
देखती हैं मुझे
ममतामयी नज़रों से,
मेरे बदन में उनकी
आँखें उग आयी हैं
यह एक संभावित शोक
हो सकता है कि
मुझे मृत्यु एक रौशन
गलियारे सी प्रतीत होती है
परन्तु मृत्यु को जितना
समझने की कोशिश करूँ
जीवन हाथ से छूट जाता है
विलाप के आने में अभी देरी है।
‘Udhedhbun’ A Hindi Poem by Nandita Sarkar