वो मुस्कुरा देती है

हर बात पर मुस्कुरा देती है
औरत अपने गम को कुछ युं छुपा लेती है
बच्चों के बिगड़ने का
घर के उजड़ने का
विधवा है तो पति को खा जाने का
पति प्यार करता है तो उसे गुलाम बनाने का
इल्जामों का बोझ उठा लेती है
शब्दों के तीर से जीवन भर भेदा जाता है उसका अस्तित्व
सिर्फ घर की शांति के लिए
खुन का घूंट पीकर
बेकसूर होते हुए भी वो गालियां खा लेती है
तन मन न्योछावर कर देती है घर को मकान बनाने में
फिर भी
पाई पाई के लिए है तरसती
सबकी जरूरत हो पुरी इसलिए इच्छाओं को मार देती है
समझौते की चादर जो न ओढ़े वो तो
छन्न से टूट जाएगा
उसका घरौंदा
इसलिए सब देखते हुए भी बन जाती है
कभी अंधी तो कभी बहरी और
चुप्पी साध लेती है !
अपने अस्तित्व को कुचल कुछ इस तरह से
औरत घर को एक डोर में बांध लेती है !

रूबी प्रसाद की अन्य रचनाएँ।

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