काबुली चना


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काबुल को काबुली चना की ख़ुशबू की तरह
मैं फैलते हुए देखना चाहता हूँ दुनिया में
जो सफ़ेद और आकार में बड़ा होता है

सफ़ेद भी कैसा, जिस तरह पिता का सफ़ेद साफ़ा
ख़ुशबू भी कैसी, जिस तरह माँ के हाथों बने छोले की ख़ुशबू

क्या वाक़ई काबुल में सब वैसे का वैसा है
जैसा हम सुनते आए हैं वहाँ के बारे में
जैसा हम देखते आए हैं किसी पठान को
फ़िल्म में, कहानी में, रिपोर्ताज में

मेरा यह अंदेशा ही अब मेरा सवाल है

क्या मेरी आवाज़ काबुल तक पहुँचेगी
अगर पहुँचेगी तो क्या कोई काबुली पठान
वहाँ से काबुली चना भेजेगा मेरे लिए

अगर भेजेगा तो उस काबुली चने का रंग
पिता के सफ़ेद साफ़े के रंग का होगा
अथवा उन लोगों के ख़ून के रंग का
जिन्हें मार डाला गया बर्बरता को मात देते

बस अब जो कुछ अच्छा है
वह नाटक के नेपथ्य में है
और बुरा ठीक आँखों के सामने

तभी माँ की मनाही है अब काबुली चना घर लाने की
पिता भी सिर पर साफ़ा नहीं बाँधते पठान दिखने के लिए
न पठानी कुरता पहनकर निकलते हैं चौक तक घूम आने।

‘Kaabuli Chana’ A Hindi Poem By Shahanshah Alam

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