मुर्दा भीड़ का संताप

रोशनी उतर आयी है
पेड़ों के ऊपर से नीचे
घास पर
मेरे तलवों से
मेरे ख़ून रिसते होंठों पर,
मैं महसूस कर रही हूँ
सैकड़ों कीड़े घिसट रहे हैं
मेरी निर्वस्त्र देह पर
घड़ी की सारी सुइयाँ
अपने सर बुरे समय का बोझ लेकर
एक साथ रुदन कर रही हैं

कौवे मचा रहे हैं चीख़ पुकार
कुत्ते भी ताक में हैं
कुछ पुरुषों की आँखें दौड़ कर धंस रही हैं
मेरे अंगों के हर एक कोने में
कुछ स्त्रियाँ कर रही हैं
कानाफूसी
कुछ लोगों ने थम कर संवेदनाएँ दिखायीं
फिर समय को कोसते आगे बढ़ गए
कुछ ऐसे रहे जिनकी ज़बान ने
आज सीटियाँ नहीं उगली,
मेरी दुग्ध ग्रंथियाँ भी आज
पोषण नहीं
उगल रही है ख़ून,
पत्रकारों के कैमरों ने
कर दिया है पोस्टमार्टम
उसी जगह
सरेआम

जाने क्या बात है
मैं भीड़ की आँखों में झाँककर
भी उन्हें नहीं समझा सकी
ये निर्वस्त्रता उनकी ख़ुद की है
न जाने क्या बात है!
सारी संवेदनाएँ, सारे जुलूस,
सारी क्रांतियाँ धरी की धरी रह जाती हैं
और अख़बार फिर से बिक जाता है
रद्दी में

अचानक हवा चीख़ती हुई बोली
कलियुग में कृष्ण नहीं आते,
वे बजाते हैं
अपनी विवशता पर
शोक की मुरली,
दुःशासन ने जमा ली है
अपनी पैठ।

नन्दिता सरकार की अन्य रचनाएँ।

Related

गाँव : पुनरावृत्ति की पुनरावृत्ति

गाँव लौटना एक किस्म का बुखार है जो बदलते मौसम के साथ आदतन जीवन भर चढ़ता-उतारता रहता है हमारे पुरखे आए थे यहाँ बसने दक्खिन से जैसे हमें पलायन करने

सूखे फूल

जो पुष्प अपनी डाली पर ही सूखते हैं, वो सिर्फ एक जीवन नहीं जीते, वो जीते हैं कई जीवन एक साथ, और उनसे अनुबद्ध होती हैं, स्मृतियाँ कई पुष्पों की,

लौटना

जो गये, उन्हें लौट आना चाहिए, लौटने से जीवन होता है परिष्कृत, व्यथन के मेघ अनाच्छादित होते हैं, और विषण्णता होती है लुप्त। क्योंकि लौटना संगम है दुःखों का, और

Comments

What do you think?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

instagram: