सुखों से उपजा दुख।
दुखों से मैं।
और फिर
देर तक
काँपता रहा जीवन
निष्प्रयोज्य… निर्रथक… निरंतर…
लहरें लहरों से टकराती रहीं
जिजीविषा आखेट कराती रही।
प्रेम ढूंढ़ता रहा कोमल स्पर्श।
देह ढूंढ़ती रही अपने हिस्से की आग।
तुम्हारी पीठ से निकली नदीं में
वेदना ने चाहा तिरोहित हो जाना।
जीवन, प्रतीक्षा नामक कोशिकाओं का संघट है।
तिल तिल कर रिसती रही प्रतीक्षा।
व्यापती रही जीवन के स्थान पर मृत्यु।
कमान से निकले तीर की भाँति
तुम कभी लौट के आ न सकीं।
जीवन की प्रत्यंचा
फिर कभी चढ़ायी जा न सकी।
‘Prem Dhoondhta Raha Komal Sparsh’ A Hindi Poem by Sudheer Dongre