सहिष्णुता


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मेरे गले में हज़ारों शीशें क़ैद हो गए हैं
अब मैं चीख़ नहीं सकती
मेरी आँखों में इतनी रोशनियाँ छन कर आयी
कि मुझे अँधेरा दिखना बन्द हो गया है
मेरे कानों को आदत पड़ चुकी है
अँधेरी गुफाओं के भीतर के शोर की
मेरे हाथ सुन्न हो गए हैं
मैं नहीं खुरच सकती
मेरे शरीर से लिपटे पागलपन को
मेरी नसों में संस्कारों ने ऐसी पैठ जमायी हैं
कि मुझे गला घोंटना न आया
संसार में लिप्त फ़सादों का

परन्तु मैंने लिखे उपाय
पाताल में गिरते संघर्षों के
मेरे भीतर के उन्मादों को मैंने
जमा दिया हैं कागज़ों पर
मैंने लिखी विद्रोही कविताएँ
असहिष्णुता की पीठ पर
अब वे सारी मिलकर मुँह चिढ़ाती हैं
मेरी गूँगी बहरी सहिष्णुता को।

‘Sahishnuta’ A Hindi Poem by Nandita Sarkar

 

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