चीनी


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हलवाई की दुकान के बाहर गिरी रह गई थी चीनी
जिसे उठाकर मैं रख आया था बरगद की जड़ों के पास
चींटियों के लिए जिन्हें महामारी के इस वक़्त में
खाने को कम मिल रही थीं मीठी चीज़ें

यह जब महामारी का वक़्त है
यह जब नरसंहार का वक़्त है
यह जब दरिया में लाशों के बहने का वक़्त है
यह जब अपनों को खोने का वक़्त है
यह जब कंजूस हुक्मरानों का वक़्त है
यह जब भूख से बिलखने का वक़्त है
ऐसे में कैसे गिरी रह गई होगी चीनी
या कैसे गिरी रह जाने दी होगी चीनी को हलवाई ने

अभी कल का वृत्तांत है
जो कल गुज़र गया कैलेंडरों से

लड़कियों को अकसर लुका-छिपी का खेलने के लिए
लड़कियों को अकसर पतंग उड़ाने के लिए
लड़कियों को अकसर गुपचुप खाने के लिए
लड़कियों को अकसर सिनेमा हॉल जाने के लिए
ज़िद करते देखा था मगर उस लड़की ने
चीनी मँगवाने को लेकर अपने हठ के लिए
डाँट सुनी थी अपने बेरोज़गार पिता से
और यह सच बात थी किसी सत्यकथा की तरह

पिता कहाँ से लाकर देते चीनी अपनी किशोर लड़की को
जिनकी जेबी में नमक ख़रीदने के लिए पैसे नहीं थे
जिनकी आत्मा भटक रही थी पत्नी के मीठे चुंबन के लिए

हर पिता जी रहे थे ऐसे जटिल समय में
जहाँ कि बाज़ार सजे थे हर जगह
लेकिन पिता की जेब ख़ाली थी
घर के ख़ाली बर्तन की तरह

पिता जी रहे थे औरतों को औरतों के द्वारा
पुरुषों को पुरुषों के द्वारा पीटे जाने की घड़ी में

पिता जी रहे थे अमीरों की अमीरी को बढ़ते हुए देखकर

ऐसे में, मेरा नज़रिया पूछिए तो चीनी गिरी रह गई होगी
हलवाई के यहाँ काम करने वाले उस लड़के की वजह से
जिसे पतलून के जेब में चीनी रखकर खाने की आदत थी

जैसा कि आप समझ रहे हैं यही सच है
उस लड़के को चीनी की मिठाइयाँ नहीं
चीनी पसंद थी उस किशोर लड़की की तरह

जैसा कि आप समझ रहे हैं यही सच है
कि देश की सरकार हमेशा की तरह
यह बात भी झूठ बोलती रही थी
कि जनता के घरों में ढेर खाने की वस्तुएँ हैं

जबकि सर्वव्यापी चीनी
लड़की के शबो-रोज़ से ग़ायब हो रही थी
जैसे ग़ायब हो रही थीं नदियाँ
जैसे ग़ायब हो रही थीं ख़ुशियाँ

गाहे-बगाहे आप भी सोचा कीजिए जनाब
कि कितना सारा कुछ ग़ायब हो रहा था
रोज़-ब-रोज़ हम सबकी ज़िंदगी से –
तुम्हारे अच्छे दिनों के नारे
तो मेरे अच्छे दिनों के दोहे
तुम्हारा सुख तो मेरा चैन
तुम्हारे सपनों का शहर
तो मेरे सपनों का गाँव
तुम्हारे शत्रु तो मेरे दोस्त
तुम्हारे कपड़े तो मेरे जूते

तुम्हारी अच्छी-अच्छी आदतें
तो मेरी पसंद की लड़कियाँ ग़ायब हो रही थीं

‘यह दुनिया बहुत दिनों तक बची रहेगी
स्त्रियाँ अगर चीनी की चाशनी से बने बताशे खिलाती रहीं
अपने-अपने ईश्वर को’

यह कथन मेरा नहीं मेरी उस ज्योत्सना भाभी का था
जो अब इस दुनिया के पास नहीं अपने ईश्वर के पास थीं

जबकि मेरे चचा खटिया पर लेते थे
और उनकी आत्मा ने छोड़ दी थी उनकी देह को
मेरा यही यक़ीन है कि चचा की स्मृतियों में
चीनी ही रही होगी सौ प्रतिशत
चचा कहते रहे थे, ‘हमने तुम्हारी चची की मुहब्बत नहीं देखी
लेकिन चीनी देखी भी है और खाई भी है बचपन से’

किसी रोज़ मैं शायद मीठा नहीं बोल पाऊँगा
तो चीनी ही रख दूँगा तुम्हारी ज़बान पर
चीनी में शहद का स्वाद भरा है मेरी जान
और शहद तुमको मेरे प्रेम की तरह पसंद है

एक गायक जो हमेशा मीठे स्वर में गाता था
आज एक दूसरे गायक से कह रहा था
कि मालूम नहीं जीवन के किस तीते दिन में
प्रवेश हुआ होगा चीनी का हमारे घरों में

सच है, जब हम महामारी के भयावह दिनों से गुज़र रहे हैं
चीनी को तब भी बचाए रखना चाहेंगी बहनें उजाड़ रसोईघर में
इस दुःख की घड़ी में उन्हें ही तो
बनानी होती है चीनी वाली चाय

चीनी को बचाए रखना चाहेगा
हलवाई के यहाँ काम करने वाला लड़का
और वो चींटियाँ भी बचाए रखना चाहेंगी
जिनके लिए मैंने बरगद की जड़ों के पास रखा है चीनी को

चीनी को मगर देश का तानाशाह राजा
कभी बचाए रखना नहीं चाहेगा
आने वाले हज़ार-हज़ार दिनों तक
क्योंकि चीनी बेचने में मुनाफ़ा कम है
शुगर फ़्री पाउडर और टिकिया बेचने में मुनाफ़ा ज़्यादा है

जिस तरह कि डार्क चॉकलेट को बेचने में मुनाफ़ा ज़्यादा है

मेरे ख़्याल से चीनी अब क़िस्से के लिए
और राजनीति के लिए बची रहेगी
इस बीमार हस्तिनापुर में।

‘Cheeni’ A Hindi Poem by Shahanshah Alam

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