घनघोर काली घटायें
उमड़ घुमड़कर छा रहीं थी
बस बारिश होने को थी
स्त्रियों ने रोका बारिशों को
स्वजनों के नियत स्थलों में पहुँचने तक
कभी रोका उसे डोरी पर टंगे कपड़ों के ध्यास में
कभी न बरसने की मिन्नत की छतरी की अनुपस्थिति में
कभी बस दो सेकेंड ठहरने कहा पतीले में दूध के बसने तक
इसी तरह ना – ना छोटे बड़े कारणों से उन्होंने रोका बारिशों को
घटायें सुनती भी रही किसी ना किसी का कहना
फिर एक दिन अचानक स्त्रियों के निद्राकाल में
बादल बरसे,
कुछ, यूँ बरसे
जैसे साहूकार ने वसूला कर्ज़ – असल, मुद्दल, सूद समेत
जैसे हो बादल का फटना
ख़ोजते है हम इसके पीछे कोई वैज्ञानिक कारण
पर होता असल में यह मानवीय कारण, स्त्रैण कारण
क्योंकि हम ही है प्रकृति
हमसे ही है प्रकृति
ठीक इसी तरह रोकतीं है स्त्रियाँ
अपने – अपने हिस्से की बारिशें
आँखों की कोर में
अचानक कभी ये बारिशें
कारण बिना कारण
बीती किसी बात पर,
मौसम बेमौसम बिना किसी पूर्वानुमान के
असल, मुद्दल, सूद समेत बरस पड़ती हैं
और तुम कहते हो स्त्रियाँ रोती बहुत हैं!