माँ के साथ विदा हुई
माँ के खाने की ख़ुशबू
फिर क्यूँ आते हैं पिता
जब मुझे खड़ा पाते हैं
चिर-परिचित चूल्हे के पास
क्या तलाशते हैं
पतीले का ढक्कन हटा
साँस भरते पिता
मैं नहीं चाहती
कभी माँ जैसा पके मेरा खाना
नहीं चाहती
ख़त्म हो कमरे से रसोईघर तक का सफर
पिता का
मैं शिद्दत से चाहती हूँ
यूँ ही
एक टुकड़ा महक ढूँढते
एक दिन माँ को जा मिलें
प्रेमी पिता।
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