कुल मिलाकर ग्यारह बरस की उम्र रही होगी
जब एक रात
एक बंद अँधेरे कमरे में
मैंने एक तेज़ चाँटे की आवाज़ सुनी थी
तब तक मैं वैवाहिक बलात्कार के साथ-साथ
बलात्कार शब्द से भी अपरिचित थी
बढ़ती उम्र ने
स्पर्श के अलग-अगल रंगों से परिचय करवाया
और साथ ही सिखाया
सिमटना और चुप रहना..
मुझे अक्सर
पिता, भाई, मित्र, प्रेमी, पति, पड़ोसी और सहकर्मियों के चेहरे
आपस में गड्डमड्ड प्रतीत होते रहे
मेरी चुप्पी एक ऐसे विस्मय और भीरूता की कारक थी
जहाँ मैं प्रेम मे देह
और देह में प्रेम के अस्तित्व को लेकर
एक लंबे समय तक असमंजस में रही
शायद… अब भी हूँ
बावजूद इसके मैंने चुना
एक महानगर में अकेले रहकर नौकरी करना
अपने सपनों को जीना
और साथ ही साथ
प्रेम में होना
(हालाँकि इसे मेरा दुस्साहस ही समझा जाए)
मेरे मौन और तथाकथित अहंकार के बीच एक बेहद महीन रेखा रही
मेरे आत्मसम्मान और तथाकथित उच्छृंखलता की परिभाषाएँ लगभग एक सी थीं
ठीक वैसे ही जैसे मेरा सफल होना मेरी चरित्रहीनता का पर्याय था
एक लंबा अर्सा बीत चुका है
देह तब भी बंधन थी… अब भी बंधन है
मैं इस कतिपय आज़ादी में
आज़ादी की अपनी परिभाषाएँ आज भी तलाश रही हूँ
शायद कभी… मैं ख़ुद से भी कह सकूँ
आज़ादी मुबारक!