रेजा


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रेजा को स्वप्न में भी
दिखाई देते हैं बड़े-बड़े पत्थर
भूरे-लाल, काले-पीले, सफेद रंग के पत्थर,
नादान रेजा यह नहीं जानती
कि इन पत्थरों से बनेगा
लालकिला या ताजमहल
बुलंद दरवाजा या इंडिया गेट
या फिर ठेकेदार का शानदार मकान
उसे बस इतना पता है कि
उसके झोंपड़े की नींव में
नहीं डलते ये पत्थर।

जब पत्थरों पर उकेरे जा रहे थे
लोकार्पण कर्ताओं या शहीदों के नाम
रेजा उकेर रही थी अपनी उँगलियों पर
बारह रुपए घंटे के हिसाब से
बारह अट्ठे छन्नू का पहाड़ा,
सौ में बस चार कम गिनते-गिनते
सौ वाट के बल्ब जितना
तेज छलका था उसके चेहरे पर
जिसके सामने धुँधला गया था
ताजमहल का नूर।

ताजमहल की तस्वीर देखकर
उसे याद आता है
अपनी साथी रेजा का
पत्थर के नीचे दबकर मर जाना।

यूँ तो पत्थर के ढेर पर
दो घड़ी सुस्ताने बैठी
रेजा के सामने
कुछ झुका-झुका सा दिखता है बुलंद दरवाजा।

‘पेट पर पत्थर रखना’
यह कहावत भी
बेमानी है रेजा के लिए,
उसके लिए तो पत्थर पर ही खिलते हैं फूल
जब खिलखिलाता है उसका बच्चा
आधा पेट भात खाकर।

साँझ ढले कपड़ों से पत्थर की धूल और
महीन किरचें झाड़कर
भात पकाती रेजा
कई बार भात के किरकिराने पर भी
कर्कश नहीं होती।

इन दिनों अपनी हथेलियों पर
फफोले के दाग सहलाती रेजा
बेहद उदास है,
पत्थर-खदानों में काम बंद है
और बिना पत्थर
नहीं खिलते फूल
रेजा के जीवन में।

* रेजा-मजदूरी करने वाली स्त्रियों को रेजा कहते हैं।

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